Monday 3 December 2018

व्यंग्य 'इकत्तीसवीं सदी में'


-    धर्मपाल महेंद्र जैन

             यह इक्कीसवीं सदी की बात है, आज से एक हज़ार साल पहले की। उस जमाने में सड़क किनारे की एक गुमटी पर चाय बनाने वाले एक लड़के को देश सेवा करने का फंडा समझ में आ गया, फिर तो वह चुनाव पर चुनाव जीतता गया। वह अति साधारण वस्त्र पहनता था, इसलिए लंगोटिए उसके जिगरी बन जाते थे, जो एनकाउंटर करने में माहिर होते थे। एक दिन उसकी ऐसी निकली कि वह एक ग़रीब महादेश का बादशाह सलामत बन गया। सलामत इसलिए कि बहुमत उसकी मुट्ठी में था। विरोधी उसके सामने ठुमका लगाते थे। जितनी देर उसके विरोधी एक आँख मींच कर व्यंग्य बाण चलाते, उतनी देर में वह धड़ाधड़ राफेल जैसे कई सौदे निबटा देता। लोग उसे हिटलर कहते तो वह बहुत हँसता और कहता - प्रजातंत्र में कोई हिटलर नहीं होता, बस एक बादशाह होता है और वह मैं हूँ ना। नक्कारखाने में उसकी तूती बज रही थी, सिर्फ उसकी जय-जयकार करने से पुण्योदय हो जाता था। पुण्य में कुर्सियाँ मिल रही थीं। भक्तों के अच्छे दिन आ रहे थे।

एक दिन उसने अपने मन की बात कही कि रिज़र्व बैंक के पास लाखों करोड़ रुपये हैं। ये सब पैसा ग़रीबों में बाँट देना चाहिए। अंग्रेज़ों ने और उनके जाने के बाद उनके चाकरों ने देश को लूट-लूट कर ग़रीब बना दिया है। अब वक़्त आ गया है कि ग़रीबों के खाते में रुपये लबालब भर दिए जाएँ ताकि कोई ग़रीब नहीं रहे। जनता ने बड़ी तालियाँ बजाई, दुआ की कि बादशाह की सल्तनत कायम रहे।

बादशाह ने दरबानों की मीटिंग बुलाई।  पार्टी के अध्यक्ष हमेशा उनके दाहिनी ओर बैठते थे, और फुसफुसा कर बादशाह के कान भरने में प्रवीण थे। वे बहुत घाघ थे, एक मोहरा चलते थे, तो दस मोहरों की ढिबरी टाइट हो जाती थी। उन्होंने कहा - बादशाह का इक़बाल बुलंद हो, हमारी सल्तनत हमेशा कायम रहे। हे नेक बादशाह, अपने पैर पर कुल्हाड़ी मत मारो। रिज़र्व बैंक को पार्टी के खाने के लिए छोड़ दो। ग़रीबों को अमीर बनाने का ख़्याल सिर्फ़ भाषणबाजी के लिए अच्छा है। सब ग़रीब अमीर हो गए तो अनर्थ हो जाएगा। मेरी बात गौर से सुनो। जो ग़रीब हैं, वे आपका वादा सुन कर वोट देने आते हैं। जो अमीर हो गए हैं, उन्हें वोट देने में शर्म आती है और जो महाअमीर हो गए हैं वे देश छोड़ रहे हैं, बस गुपचुप चंदा पहुँचा देते हैं। हमें वोट चाहिए इसलिए ग़रीब चाहिए। जितने ज़्यादा ग़रीब उतने ज़्यादा वोट। इसलिए वादे के उलट करो, ज़्यादा ग़रीब बनाओ मेरे परवरदिगार।

बादशाह हतप्रभ हो गए। वे बोले, गुरू मैं धन्य हुआ, अब समझ में आया कि क्यों पहले शाह, बाद में बादशाह। अध्यक्ष जी आगे बोले, हे बादशाह हम आपकी सभाओं में लाखों लोगों को भर-भर कर लाते हैं। ग़रीब लोगों को अत्ता-भत्ता और भाड़ा दे कर हम भीड़ बनाते हैं, भीड़ से आपकी शान बढ़ती है मेरे मौला। ग़रीब होंगे तो भीड़ जुटेगी, भीड़ जिंदाबाद के नारे लगाएगी तो आकाश-पाताल में हल्ला सुनाई देगा। प्रेस के कैमरे और टीवी की स्क्रीन पर लोग ही लोग होंगे और हमारे नाम वोट ही वोट होंगे। ग़रीब होगा तो गला फाड़ कर चिल्लाएगा, जब तक सूरज-चाँद रहेगा, बादशाह का नाम रहेगा। इसलिए हे सिकंदर, राज करना है तो आप और ग़रीब बनाओ, रात-दिन ग़रीब बनाओ, हम उन सबको अपनी भीड़ में शामिल कर लेंगे और अपना झंडा पकड़ा देंगे। बादशाह बहुत खुश हुए, उनका सीना सत्तावन इंच हो गया।

बादशाह ने अपने नवरत्नों से कहा - चाणक्य के बाद भारतभूमि पर अब जा कर कोई नीतिकार पैदा हुआ है। आप ग़रीबी और ग़रीब पर उनके विचार सुनें और गुनें। अध्यक्ष जी अपनी प्रशंसा सुन कर बहुत खुश हुए। गधा ऊँट को कहे कि तुम्हारी ग्रीवा सुदीर्घ है, कटाव अद्भुत है, तुम सुंदरतम हो, तो गधे का भी साहित्यकारों जैसा कर्तव्य हो जाता है कि वह कहे, वाह आप कितने सुंदर सुर लगाते हो, क्या आवाज़ है, सारे वोटरों को लामबंद कर लेते हो। तद्नुसार अध्यक्ष जी ने बादशाह की लपेट-लपेट कर तारीफ़ की। परस्पर गुणगान करने में वे ग़रीब और ग़रीबी के मुद्दे को भूल गए। इस सुअवसर पर नवरत्न भी पीछे नहीं रहे, उन्होंने इन दोनों की भूरि-भूरि प्रशंसा कर सात चुनावों के लिए अपने परिवार के टिकट पक्के करा लिए। फिर किसी ने भारतमाता की जय का नारा लगाया और अध्यक्ष जी मुद्दे पर आये।

वे बोले - मित्रो, यह चर्चा अति गोपनीय है और आपके समझने के लिए है बस, तो ध्यान से सुनिए। हमें देश के हर हिस्से में ग़रीब चाहिए। गाँवों में खेतीहर ग़रीब चाहिए तो महानगरों की झुग्गी-झोपड़ी और चालों में मज़दूर ग़रीब चाहिए। ग़रीब देश को बाँध कर रखता है, चुनाव प्रणाली को ज़िंदा रखता है। इस तरह ग़रीब प्रजातंत्र को पोषित करता है। बादशाह के लिए सबसे मुफ़ीद काम है ग़रीब के लिए योजना बनाना और ग़रीबी पर भाव-विभोर भाषण देना। ग़रीबों को लेकर हमारा सोच एकदम साफ़ होना चाहिए। भगवान राम के जमाने में ग़रीब थे, केवट थे, शबरी थी। भगवान कृष्ण के जमाने में ग्वाले थे, सुदामा थे। हमारे स्वर्णिम युगों में भी ग़रीब रहे हैं। सब राजाओं ने ग़रीबों को पाला-पोसा और महान हो गए। आप समझ रहे हैं न, ग़रीबी को कोई ख़त्म नहीं करता, सबके लिए ग़रीब पालने-पोसने की चीज़ है।

मित्रो, ग़रीबों के लिए हमने इतना विशाल प्रशासन खड़ा किया है। तरह-तरह के दफ़्तर हैं, किस्म-किस्म के अफसर हैं, घड़ियाल हैं, मगरमच्छ हैं, साँप और सपेरे हैं। अमीर तो इन सबको ख़रीद कर अपनी जेब में रख सकते हैं। आपने ग़रीब ख़त्म कर दिए तो हम शासन किस पर करेंगे? हर सत्ताधीश कहता रहा है ग़रीबी हटाओ पर ग़रीबी युगों-युगों से शाश्वत रही है। हमें भी ज़ोर-ज़ोर से चिल्लाना है ग़रीबी हटाओ पर ग़रीबी हटाना नहीं है। जो नहीं हो सकता वह कर दिखाने का सब्ज़बाग बताना श्रेष्ठ राजनीति है। करने का नाटक करते हुए ही लोग महान राजनीतिज्ञ बने हैं, हमें भी यही करना है। सत्ता का सच से क्या संबंध! जो हम कहते हैं, वह करने लग जाएँ तो उसमें क्या राजनीति, क्या सुशासन!  नवरत्नों ने बहुत तालियाँ पीटीं। बादशाह मुस्कुराते रहे। बादशाह धृतराष्ट्र हो कर मुस्कुराता रहे तो भी सौ कौरव इकट्ठे कर लेता है। बादशाह सलामत और अध्यक्ष जी की बहुत जय-जयकार हुई तो बादशाह सलामत बोले - साथियो, आओ हम प्रण करें, हम हर प्लेटफॉर्म पर ग़रीब की बात करेंगे, ग़रीबी हटाने की बात करेंगे। 

इक्कीसवीं सदी का वो दिन था और इकत्तीसवीं सदी का आज का दिन है, ग़रीबी वहीं है। राजनेताओं के दिन जैसे तब बदले थे, अब भी बदल रहे हैं। 



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धर्मपाल महेंद्र जैन 
ईमेल : dharmtoronto@gmail.com        फ़ोन : + 416 225 2415
सम्पर्क : 1512-17 Anndale Drive, Toronto M2N2W7, Canada

व्यंग्य 'इकत्तीसवीं सदी में'

माननीय ,
सादर अभिवादन

नवजन पर प्रकाशन के विचारार्थ मैं अपना व्यंग्य 'इकत्तीसवीं सदी में' संलग्न कर रहा हूँ।   यह 1-15 दिसम्बर के गंभीर समाचार में प्रकाशित हुआ है।

अपने मंतव्य से अवगत कराएं। 

सादर,
धर्म 
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धर्मपाल महेंद्र जैन 
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Saturday 15 April 2017

इकहत्तर साल का झोपड़ा / शैलेश सिंह

शैलेश सिंह 
क्या न कर गुजरता है इंसान अपनों के लिए , माथे का पसीना एड़ी तक पहुचते देर नहीं लगती। तपती धूप की अंगार हो या ठिठुरती ठण्ड की मार, या कानो से सन्न से गुजरती पानी की बौछार। हर दिन हर पल अपने बच्चों के लिए मेहनत करता राजाराम, जिसके पीछे उसकी तीन लडकिया और एक लड़का था , लुगाई भी थी , और एक भाई भी था, काम करनेवाला सिर्फ वही एक मात्र।पेट पालना दूभर हो गया था, और तब राजाराम ने निर्णय लिया की मैं अब गांव में मजदूरी नहीं करूँगा, मैं शहर जाऊंगा । और भाई भागीराम तुम गांव का काम संभालो।
आनन फानन में तैयारी होने लगी, और फिर राजाराम शहर चला गया,कुछ ही सालो में तरक्की होने लगी।

राजाराम गांव में पैसे भेजता और भागी राम उस पैसे का खेत ,घर ,समाज , और बच्चों की शादी भी करने लगा। इस बीच राजाराम गांव आता भी था तो शादी में पर कुछ दिन के लिए ही । जब गांव आता तो दूर खेत में अपने बचपन वाली झोपडी में रहता। उसका लड़का पूछता बबुआ आप यहाँ खेत में अपने इस पुराने झोपड़े में क्यों रहते हो। राजाराम के शब्दों में एक अलग ही बात थी, बेटा मुझे तेरे पक्के मकान का घर रास नहीं आता रे,, इसलिए मैं जितने दिन भी गांव रहता यही आकार सोता हूँ.


धीरे धीरे घरवालों को इस बात की आदत बन गयी थी। राजाराम जब भी आता झोपड़े में ही रहता।

अब काफी साल हो गए राजाराम का शरीर जवाब देने लगा था , वो हर बार गांव ये सोच कर आता की आखिरी बार है, पर घर आकर एक नया ही बखेड़ा शुरू हो जाता, अभी मंझली की शादी बाकी है अभी छोटी की शादी बाकी है और लड़के को कुँवारे मारोगे क्या, थोड़ा और जमा कर लो।

थक हार कर फिर वो शहर चला जाता।

अंततः जब गांववालों ने संमझाया की अब शहर मत भेजो राजाराम बूढ़ा हो गया है ,घर रखो और सेवा करो।। तब जाकर घरवाले माने,, कुछ दिन तक पक्के घर के एक कोने में रखा ,, फिर धीरे धीरे दूरिया बढ़ती गयी।
एक दिन उसके लड़के ने राजाराम से कहा, बबुआ ! तू काहे ना आपन खेतवा वाले झोपड़िया में रहता ।
खेतवो रखा जात ,, जानवर बहुत बढ़ गइल बाटे, राजाराम के सीने पर पहाड़ टूट पड़ा था ,, भाई कहता था, बीबी कहती थी ।। आज मेरा बेटा भी मुझे घर के बाहर देखना चाहता है!

बबुआ आखिर तूही त कहत रहला कि हम अपने बचपन वाली झोपड़िया के नाहीं छोड़ब, जब जब आवत रहला तब तब संवारत रहला वोकरा के... राजाराम के आँखों में आंसू थे उसके मुंह से जवाब नहीं निकला ,, पर उसकी आँखे बोल गयी ,, बचवा हम तुहरा के भी त बत्तीस साल से जोगवत बाटी,, अब इकहत्तर साल के राजाराम का दिन और रात उसी झोपडी में बीतने लगा , चारो तरफ भागी राम और बच्चे की किरकिरी होने लगी ,, पर वो सब अपने भोगविलासिता में मशगूल थे,


कभी खाना समय से मिलता तो कभी भूखे सोना पड़ता उस महान पुरुष को जिसने अपनी पूरी जवानी बच्चो के लिए कुर्बान कर दिया,, सूखे हुए आँखों में आंसू भी नहीं आते,,, एक दिन उनकी आत्मा उसी झोपडी में विलीन हो गयी ,, उसके मृत्यु की खबर घरवालों को दो दिन बाद मिली ,, और राजाराम सदा के लिए चला गया ,,, तब गांववालों ने निर्णय लिया कि राजाराम को इसी झोपड़ी में आग दिया जाय ,, और राजाराम अपने इकहत्तर साल के झोपडी के साथ मिटटी में दफ़न हो गया..!



शैलेश सिंह


( कहानी पूरी सत्य घटना पर आधारित) 


महागठबंधन/ डॉ. श्रीश


झूठ, बेईमानी, अनाचार आदि ने
साक्षर युग की ज़रूरतों को समझते हुए
किया महागठबंधन.
इन्होंने सारे सकारात्मक शब्दों की बुनावट को समझा
और तैयार किया सबका खूबसूरत चोला।
इन चोलों को पहन इन्होंने
फिर से शुरू की राजनीति।
नए चोलों ने क्या खूब कमाल किया
रोज ही नया धमाल करते
हैरान होने लगे सभी सकरात्मक शब्द,
उनकी पहचान का संकट हो गया
जितना ही वे अपनी पैरोकारी करते
उतना ही संकट गहरा हो जाता।
उनकी हालत दयनीय हो गयी जब
उनपर आरोप लगाया गया संगीन
कि उन्होंने महज सकरात्मकता का
चोला ओढ़ा हुआ है।
उन शब्दों को धमकाया भी गया कि
जल्द ही वे किसी पुरानी किताबों या
पीले दस्तावेजों में दफ़न हो जाएँ क्योंकि
देश अब जाग पड़ा है, नकली चोलों के दिन लद गए हैं।
सकारात्मक शब्दों की बैठक तो हुई,
पर कोई एक राय ना बन सकी,
किसी ने धीरज की रणनीति अपनाने को कहा,
किसी ने जनता की सनातन उदात्त चेतना पर विश्वास रखने को कहा
साहस शब्द ने संघर्ष पर उद्यत होने को कहा
आचरण की शुद्धता पर भी ध्यान गया जब किसी ने
नकारात्मक शब्दों के चोलों को बुनने की बात की।
बैठक नाकाम रही
सभी सकारात्मक शब्द अकेले पड़ गए और
देर-सबेर वे अलग-अलग शब्दकोशों में जाकर सुस्ताने लगे।
पर
नयी सरकार ने नए ज़माने के लोकतंत्र और नयी चेतना के अनुरूप
सभी शब्दकोशों के सभी पन्नों की नीचे की मार्जिन पर
यह डिस्क्लेमर लगाना राष्ट्रहित में अनिवार्य कर दिया था :
‘सावधान रहें, सचेत रहें, सकरात्मक रहें, शब्दार्थ चोले बदल रहें।’



Friday 14 April 2017

"चाय की दुकान" और बेटी " / शैलेश सिंह


सोनू के होठ काँप रहे थे। दाँत किटकिटा रहे थे। ठण्ड का मौसम था ही ऐसा । रात के ग्यारह बज रहे होंगे जब वो अपनी बीबी और माँ को लेकर गांव के जीप से शहर के सरकारी अस्पताल में आया था।। 
बीबी की तबियत अचानक में बिगड़ गयी थी । पीड़ा से चीख रही थी वो । माँ का आदेश और बीबी की चीत्कार ने उसे शहर लाने पर विवश कर दिया था वर्ना इलाज तो गांव में भी था । उसने अपनी बीबी को फटाफट अस्पताल में भर्ती करवाया ।
डॉक्टर ने आनन फानन में इलाज शुरू कर दिया। और फिर एक घंटे की मसक्कत के बाद नर्स ने आकर खुशखबरी सुनाई ।
बधाई हो आप बाप बन गए। सोनू तो फूला न समाया। और तुरंत माँ को मिला। पर माँ के चेहरे पर मायुसी थी। मौन थी वो। सोनू ने पूछा क्या हुआ माँ तू खुश नही है। माँ ने कुछ नहीं बोला।
माँ तू जवाब तो दे..... माँ ने कुछ जवाब नहीं दिया । सोनू खुद अपनी बीबी के पास गया और देखा की उसकी बीबी नेहा ने एक फूल सी बच्ची को जन्म दिया है। नर्स ने बताया बच्ची अभी कमजोर है।। कुछ दिन तक अस्पताल में रखना पड़ेगा।।
सोनू ने हां में सिर हिलाया और माँ क्यों मौन है उसे सारा माजरा समझ में आ गया । माँ तो बेटा चाहती थी चिराग आएगा , चिराग आएगा यही रट लगाये रहती थी। सोनू ने माँ को उस समय कुछ नहीं कहा।। बस भागा दौड़ी में लग गया। दवा लाना। खाना लाना । चाय लाना।।
सुबह के चार बज गए होंगे उसे ये सब करते हुए। नींद उसकी आँखों से कोसो दूर थी। माँ सो गए थी। नेहा और बच्ची भी। अचानक उसके कदम अस्पताल के बाहर चल पड़े । अस्पताल के सामने सड़क पार करके चाय की दुकान थी। उसने चाय वाले चाचा से एक चाय मांगी और कुर्सी पर बैठ गया। उसके और चाचा के अलावा कोई भी नहीं था दुकान पे।।
सोनू को चाय,खाना,दवा के अलावा और कोई काम न था । पर वो जब भी असहज महसूस करता चाय की दुकान पर आ जाता और चाय पीने के साथ साथ चाचा को देखते रहता। चाचा की उम्र यही कोई सत्तर या पचहत्तर साल की होगी। उसने इन पांच सात दिनों में चाचा के अलावा और किसी को भी नहीं देखा जो चाचा की मदद कर सके। चाचा पूरी रात कंपकपाते हाथो से चाय बनाते । बर्तन धोते । ठण्ड की वजह से सिकुड़ से गए हाथो को वो कभी कभी भट्टी में हाथ सेंक लेते ।फिर एक रात सोनू ने चाचा को पूछ लिया ,चाचा क्या आपका कोई नहीं।।।
चाचा की आँखों से आंसू निकल आये और वो धीरे से बोले - मेरा एक बेटा है ।
तो वो आपके साथ नहीं रहता ?
नहीं बेटा वो बाहर रहता है । उसे पढ़ा लिखा कर बड़ा किया। डॉ बनाया । खुद पेट काटकर खिलाया और आज वो हमसे दूर रहता है। कभी आता भी नहीं।
सोनू को अफ़सोस हुआ । ऐसा भी हो सकता है क्या ! चाचा का दिल बैठ गया था। सोनू ने चाचा की पीठ सहलाई और कहा - चाचा आप महान हो । शान्त हो जाइये ऐसे कपूत जन्म न ले तो ही अच्छा । मेरे बगिया में भी बेटी आयी है ।
सोनू की आँखों में दो प्रकार के आंसू थे। एक चाचा के दुःख का और दूसरा उसकी बेटी के जन्म की ख़ुशी का। ।।

"माँ " : शैलेश सिंह

जिम्मेदारियों के बोझ तले दब गयी।
तेरी खुशियाँ हे माँ।
सब रिश्तों की तुझको चिंता
पर तेरे लिए क्या माँ।
सुबह से शाम फिर रात फिर सुबह
बदल जाती थी।


..... माँ फिर भी नहीं घबराती थी।
हम थोड़े काम कर लिए तो ।
माँ कहती आराम कर ले बेटा थक गया तू।
क्या हमने कभी माँ से पूछा।
तुम थक सी गयी हो हे माता।
ला तेरे बरतन धो दू।
ला थोड़ी रोटियां बना दू।

हे माँ तेरे पैर दबा दू।।
फिर हँस कर माँ कहती बेटा ...
तू बड़ा हो गया ... अपने पैरो पर खड़ा हो गया।
ये काम तुझे शोभा न देगी।
क्या पूछा कभी हमने हे माँ
तू भी तो बूढी होने लगी।

नव-जन के विभाग